Thursday, February 5, 2009

पांव छूने पर प्रतिबंध

पांव छूने पर प्रतिबंध

दिल में रखें आदरभाव, चरण छुआई बंद करें

- बीएचयू के समाजशास्त्र विभाग ने लगाया प्रतिबंध
- चरण छूने की प्रथा छदम व्यवहार का परिचायक
- कुछ परंपरागत परिवारों के लोग स्वाभाविक रूप से पांव छूते हैं लेकिन कुछ इस बारे में गंभीर नहीं रहते।
- पांव छूना सामाजिक आउटलुक के लिहाज से बेहतर नहीं माना जाता

पांव छूना आदर का सूचक हो सकता है लेकिन यह दूसरों के अहं को ठेस भी पहुंचाता है। इसी सोच के तहत काशी हिंदू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग ने पांव छूने पर रोक लगा दी है। इसके लिए बकायदा विभाग में नोटिस तक जारी की गई है। विभाग के प्राध्यापकों का तर्क है कि दिल की भाषा को दिल समझ लेता है। आदरणीय को अपने मन के भाव को समझाने के लिए पांव छूना जरूरी नहीं है।

जब अज्ञेय ने टैगोर के पांव नहीं छूये
इलाहाबाद में कविवर रविंद्र नाथ टैगोर आए थे। सब उनका पांव छू रहे थे। एक दृढ़ व्यक्तित्व का धनी सुदर्शन युवक आया। उसने नमस्ते किया और भीतर चला गया। इस घटना ने विश्वकवि को झकझोर कर रख दिया था। वह बहुत देर तक संयत नहीं हो पाए। युवक भी कोई नहीं बल्कि हिंदी साहित्य के मूर्धन्य रचनाकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय थे।

युवा शक्ति को नमस्कार करने की जरूरत : अज्ञेय
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. एमके चतुर्वेदी जेपी आंदोलन के दौरान अज्ञेय से मिलने दिल्ली गए थे। जैसे ही वह आए उनके साथ गए लोग अज्ञेय के पांव की ओर लपके। पर उन्होंने कहा कि नहीं, पांव छूने की जरूरत नहीं। युवा शक्ति को नमस्कार करने की जरूरत है। इसलिए मैं आपको नमस्कार करता हूं।
----------------
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में पांव छूने पर प्रतिबंध लगा दिया है। विभाग अध्यक्ष प्रो. एमके चतुर्वेदी का मानना है कि किसी के प्रति आदर प्रकट करने के और भी तरीके हो सकते हैं लेकिन आज पांव छूना कई मायनों में अच्छा नहीं है।

कहां से मिली प्रेरणा
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. एमके चतुर्वेदी जेपी आंदोलन के दौरान अज्ञेय से मिलने दिल्ली गए थे। जैसे ही वह आए उनके साथ गए लोग अज्ञेय के पांव की ओर लपके। पर उन्होंने कहा कि नहीं, पांव छूने की जरूरत नहीं। युवा शक्ति को नमस्कार करने की जरूरत है। इसलिए मैं आपको नमस्कार करता हूं। यह बात उनके मन को छू गई। अब उन्होंने अपने विभाग में सबसे बातचीत करके पांव छूने पर प्रतिबंध लगा दिया है। उनका कहना है कि किसी के प्रति आदर प्रकट करने के और भी तरीके हो सकते हैं लेकिन आज पांव छूना कई मायनों में अच्छा नहीं है।
-----------------------
क्या कहते हैं समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो. चतुर्वेदी
उनका कहना है कि कभी दान देते समय दाता दान स्वीकार करने वाले का पांव छूता था। इसके पीछे मकसद था कि लेने वाले के मन में याचक का भाव न जगे। चरण छूने की प्रथा छद्म व्यवहार का परिचायक हो रही है। इसके पीछे कुछ लोग दूसरों को भी भ्रम में रखने की कोशिश करते हैं।
इसी विभाग के डा. एके जोशी का कहना है कि कुछ परंपरागत परिवारों के लोग स्वाभाविक रूप से पांव छूते हैं लेकिन कुछ इस बारे में गंभीर नहीं रहते। इससे बात बिगड़ रही थी। वैसे भी पांव छूना सामाजिक आउटलुक के लिहाज से बेहतर नहीं माना जाता है। इसलिए छात्रों से बात कर इस चलन को कम किया गया है।
--------------------------
विश्वविद्यालय में पांव छूने की परंपरा
काशी हिंदू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, संपूणानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में पांव छूने की परंपरा है। यहां इसी के माध्यम से गुरु शिष्य के बीच संबंध बनते हैं। पूर्वांचल में नया अनाज पैदा होने पर जब उसका नेवान किया जाता है तो लोग मुहल्ले भर में घूम कर बड़ों का पांव छूते हैं। किसी के घर पुत्र पैदा होने पर भी ऐसा ही किया जाता है। पांव छूना आदर का सूचक हो सकता है लेकिन यह दूसरों के अहं को ठेस भी पहुंचाता है। इसी सोच के तहत काशी हिंदू विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग ने पांव छूने पर रोक लगा दी है। इसके लिए बकायदा विभाग में नोटिस तक जारी की गई है। विभाग के प्राध्यापकों का तर्क है कि दिल की भाषा को दिल समझ लेता है। आदरणीय को अपने मन के भाव को समझाने के लिए पांव छूना जरूरी नहीं है।

गहरी जड़े हैं पांव छूने के संस्कार की
संगीत में बड़े कलाकारों का पांव छूने की परंपरा रही है। संस्कृत विद्वानों में भी यह परंपरा है। साधु-संतों के यहां तो साष्टांग दंडवत करने की परंपरा है। मान्यता है कि सिद्ध पुरुष के हाथ और पांव से हमेशा तरंगे निकलती रहती हैं। पांव छूने पर ये तरंगें शिष्य में भी प्रवेश करती हैं। सिद्ध पुरुष जब आशीर्वाद देता है तो भी इस तरह की तरंगों का प्रवाह होता है। ऊर्जा की तरंगों के संरक्षण के लिए कई सिद्ध संत किसी को अपना पांव छूने ही नहीं देते हैं। उन्हें दूर से ही नमन करना पड़ता है। कहते हैं कि रामकृष्ण परमहंस ने स्पर्श मात्र से इसी ऊर्जा और आनंद की झलक स्वामी विवेकानंद को दिखाई थी। पूर्वांचल में बचपन से ही माता, पिता और गुरु के पांव छूने की शिक्षा दी जाती है। यह परंपरा कमोबेश विश्वविद्यालयों में भी दिखाई देती है।

1 comment:

संगीता पुरी said...

परिवारवालों में किनका पावं छूना है और किनका नहीं......यह तो सबको पता होता है.....पर समाज के अन्‍य लोगों के मामले में बडा कन्‍फयूजन रहता है.....आप किसी को सिर्फ नमस्‍ते करो और दूसरा पैर छूए तो खुद तो बुरा लगता ही है ...... सामनेवाले को भी बुरा लगता है......इसलिए सामाजिक स्‍थलों पर पैर छूने की परंपरा बंद होना ही चाहिए......वैसे शायद पैर छूने की परंपरा गुरू से ही शुरू हुई है.....इसलिए जिसके प्रति खुद के मन में सम्‍मान हो ....उसके पैर तो छूने ही चाहिए।